मीरा कपूर (परिणीति) तलाकशुदा हैं और लंदन में रहती हैं। पेशे से वकील है लेकिन शराब की लत की वजह से जिंदगी ट्रैक से उतर चुकी है। उसे अभी भी अपने एक्स हसबैंड शेखर (अविनाश तिवारी) से प्यार है। लेकिन शेखर की दूसरी शादी हो चुकी है। जिंदगी में ‘जो याद है उसे भुलाने के लिए’ मीरा शराब का सहारा लेती है। ट्रेन में सफर करने के दौरान हर दिन उसकी नजरें खिड़की से बाहर एक घर पर टिकी होती है, जहां रहते हैं नुसरत (अदिति) और आनंद (Shamaun Ahmed).. मीरा की नजरों में नुसरत की जिंदगी परफेक्ट है। ऐसी जिंदगी, जो वो जीना चाहती है। वह नुसरत के जिंदगी को लेकर अपनी कल्पना में एक कहानी बुन लेती है।
ऐसे में एक दिन नुसरत के लापता और फिर मर्डर होने की खबर लगती है, तो मीरा के भी आस पास होने के सबूत मिलते हैं। लेकिन मीरा को उस दिन की कोई बात याद नहीं रहती। वह एम्नेसिया से पीड़ित है। पुलिस से ज्यादा यह मीरा के लिए एक गुत्थी हो जाती है कि नुसरत का मर्डर किसने और क्यों किया? क्या उसी के हाथों यह मर्डर हुआ? पुलिस की शक की हुई मीरा की तरफ घूमती है। लेकिन मीरा को आभास होता है कि यह केस इतना आसान नहीं, जितना दिख रहा है। इसके बाद एक के बाद एक कई ट्विस्ट खुलते जाते हैं। क्लाईमैक्स तक जाते जाते कहानी काफी घूम जाती है.. कई किरदार टकराते हैं और एक दूसरे से कड़ी जुड़ती जाती है।
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निर्देशन
किसी किताब पर फिल्म बनाना आसान नहीं होता है। खासकर जब उस पर हॉलीवुड में एक फिल्म बन चुकी है। लेकिन रिभु दासगुप्ता ने यह रिस्क लिया। फिल्म का प्लॉट यानि की कथानक इतनी दिलचस्प है कि यह किसी को आकर्षित कर सकती है। लेकिन निर्देशक इस मर्डर- मिस्ट्री में ना ही संस्पेंस ला पाए ना ही थ्रिल। 120 मिनट की यह फिल्म काफी सपाट जाती है। ना किरदारों का रूपरेखा दिखता है, ना कहानी का। वहीं, ढूंसा गया क्लाईमैक्स पूरी फिल्म को ताश के पत्ते की तरह ढ़ाह देता है।
अभिनय
फिल्म की कहानी मीरा कपूर के इर्द गिर्द घूमती है, जिसे निभाया है परिणीति चोपड़ा ने। तलाकशुदा, अल्कोहलिक और एम्नेसिया से पीड़ित मीरा कपूर के किरदार में परिणीति की कोशिश दिखती है, लेकिन प्रभावित नहीं कर पाती हैं। उनके हावभाव काफी दोहराए से लगते हैं। उनके पति शेखर के किरदार में अविनाश तिवारी आपको बांधते हैं। उनके किरदार को कई परतों में लिखा गया है, जिसे अविनाश ने बेहतरीन निभाया है। कह सकते हैं कि वह फिल्म के सबसे मजबूत पक्ष हैं। अदिति राव हैदरी और कीर्ति कुल्हारी के किरदार महत्वपूर्ण होते हुए भी खोए से लगते हैं।
तकनीकि पक्ष
फिल्म की पटकथा काफी ढ़ीली है, जिसे रिभु दासगुप्ता ने ही लिखा है। एक मर्डर- मिस्ट्री के सबसे महत्वपूर्ण अंग होते हैं- पटकथा और निर्देशन, लेकिन इस फिल्म में दोनों औसत हैं। संवाद लिखे हैं गौरव शुक्ला और अभिजीत खुमन ने, जो कि ठीक ठाक हैं। संगीत प्रकाश वर्गीज़ की एडिटिंग को सराहा जा सकता है। उन्होंने दो घंटें में कहानी को समेटने की कोशिश की है। हालांकि कहानी की पृष्ठभूमि लंदन क्यों क्यों रखी गई थी, पता नहीं। ना वहां के लोकेशन का भरपूर इस्तेमाल किया गया, ना किरदारों का। सनी इंद्र और विपिन पाटवा का संगीत औसत है।
क्या अच्छा क्या बुरा
फिल्म का मजबूत पक्ष कुछ हद तक इसके सहायक किरदारों को मान सकते हैं। अविनाश तिवारी, अदिति राव हैदरी अपने किरदारों में खूब जंचे हैं। वहीं, कमजोर पक्ष में आती है कि फिल्म की कहानी। शुरु से अंत तक कहानी एक थ्रिल महसूस नहीं करा पाती है। यहां गलती किरदारों की नहीं, बल्कि लेखन की है। मीरा कपूर के किरदार में परिणीति चोपड़ा अपना प्रभाव नहीं छोड़ पाती हैं।
देंखे या ना देंखे
यदि आपने यह किताब पढ़ी है, या इसका हॉलीवुड वर्जन देखा है, तो कतई रिस्क ना लें। पहली बार ये कहानी देख रहे हों तो एक बार देखी जा सकती है। ‘द गर्ल ऑन द ट्रेन’ एक औसत बनी मर्डर- मिस्ट्री है, जहां किरदार- परिस्थिति बेहतरीन हैं, लेकिन पटकथा काफी ढ़ीली है, खासकर क्लाईमैक्स। फिल्मीबीट की ओर से फिल्म को 2 स्टार।Source link